भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने म्यूनिख सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस में शनिवार को कहा कि चीन की ओर से सीमा समझौतों के उल्लंघन के बाद दोनों देशों के रिश्ते अभी सबसे मुश्किल दौर से गुज़र रहे हैं.
क़रीब दो साल पहले लद्दाख में सीमा विवाद को लेकर दोनों देशों के सैनिकों के बीच हिंसक झड़पें हो चुकी हैं. उसके बाद वहां से सैनिकों को पीछे बुलाने को लेकर दोनों देशों के सैनिक कमांडरों के बीच अब तक 14 दौर की बातचीत हो चुकी है और भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर ख़ुद मान रहे हैं कि अब तक इस बातचीत का कोई ठोस नतीज़ा नहीं निकला है.
दूसरी ओर दोनों देशों के बीच व्यापार और निवेश भी लगातार बढ़ रहे हैं.
ऐसे में भारत और चीन के रिश्तों से जुड़े कई सवालों के जवाब जानने-समझने के लिए बीबीसी ने दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के प्रोफ़ेसर डॉक्टर स्वर्ण सिंह से बात की.
‘पश्चिमी देशों का ध्यान खींचना ज़रूरी था’
बीबीसी ने प्रोफ़ेसर सिंह से पहले ये पूछा कि म्यूनिख कॉन्फ्रेन्स के दौरान विदेश मंत्री एस जयशंकर ने खुलकर क्यों कहा कि दोनों देशों के बीच संबंधों में दिक़्क़त है, जबकि अब तक भारत सरकार चीन का नाम सीधे तौर पर लेने से बचती रही है. आख़िर एस जयशंकर के ताज़ा बयान के क्या मायने हैं?
इसके जवाब में प्रोफ़ेसर स्वर्ण सिंह ने कहा कि म्यूनिख में ये बयान शायद इसलिए भी दिया गया कि पश्चिमी ताक़तों का ध्यान इस बात पर जा पाए कि भारत और चीन का सीमा विवाद अभी ख़त्म नहीं हुआ है, इसलिए दोनों देशों के रिश्तों पर ध्यान बनाए रखने की ज़रूरत है.
उन्होंने कहा कि भारत का ये बयान इसलिए भी आया क्योंकि ”हाल के यूक्रेन संकट के चलते पश्चिम की सभी ताक़तों का ध्यान यूरोप की ओर चला गया है. इसका मतलब यह हुआ कि उनका ध्यान हिंद प्रशांत क्षेत्र की ओर बहुत कम हो गया है. ऐसे में यहां चीन को, जो चाहे करने, की खुली छूट मिल गई है. इसलिए भारत चाहता है कि पश्चिमी ताक़त इस क्षेत्र पर नज़र बनाए रखें.”
प्रोफ़ेसर स्वर्ण सिंह ने इस बयान के लिए हाल फ़िलहाल के दो घटनाक्रमों को ज़िम्मेदार बताया.
उन्होंने कहा, ”पहली बात तो ये कि दोनों देशों के सैनिक कमांडरों के बीच सीमा पर 14 बार बातचीत हो चुकी है, पर उसका कोई हल नहीं निकल पाया. दूसरी बात ये कि चार फ़रवरी को चीन की राजधानी बीजिंग में व्लादिमीर पुतिन और शी जिनपिंग ने एक संयुक्त बयान जारी करके रूस और चीन के सामरिक संबंधों को एक अलग पटल पर ले जाने का संदेश दिया.”
उनके अनुसार, ”इन दोनों चीज़ों को देखते हुए भारत का ये बयान बहुत ज़रूरी हो जाता है.”
वहीं विदेश मंत्री एस जयशंकर के बारे में उन्होंने कहा, ”वे हमेशा से दो टूक और सीधी बात करने के लिए जाने जाते हैं. वे पहले भी इस तरह के कई बयान देते रहे हैं.”
‘कारोबार नहीं सीमा विवाद का हल ज़्यादा ज़रूरी’
रिश्तों में तनाव के बावजूद भारत और चीन के बीच कारोबार पिछले कई सालों से लगातार बढ़ता गया है.
इसी जनवरी में चाइना जनरल एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ़ कस्टम ने बताया कि 2021 में भारत से उसका व्यापार 125.6 अरब डॉलर तक पहुंच गया. इसमें भारत का आयात 97.5 अरब डॉलर रहा है. वहीं उसका निर्यात महज़ 28.1 अरब डॉलर का रहा.
दोनों देशों के बीच के तनावपूर्ण रिश्तों के बीच हमने जब इस पहलू को उठाया तो प्रोफे़सर स्वर्ण सिंह ने साफ़ कहा कि भारतीय विदेश मंत्री के ताज़ा बयान को दोनों देशों के व्यापार और निवेश से हटकर देखने की ज़रूरत है.
उन्होंने कहा, ”एस जयशंकर ने म्यूनिख कॉन्फ्रेन्स में ये संदेश देने की कोशिश की कि व्यापार और निवेश बढ़ने से कोई ये न समझे कि भारत और चीन दोस्त बन गए हैं और उनके बीच की सारी परेशानियां अब ख़त्म हो गई हैं.”
प्रोफे़सर सिंह कहते हैं, ”जयशंकर ने साफ़ तौर पर कहा कि सीमा पर तनाव की स्थिति भारत और चीन के संबंधों की प्रकृति को तय करेगी. इस संदेश से बिल्कुल साफ़ हो जाता है कि भारत के लिए इस वक़्त चीन के साथ रिश्तों के लिए सीमा पर तनाव बहुत महत्वपूर्ण है.”
‘बड़ी ताक़तों के आपसी रिश्ते होते हैं बहुरंगी’
दोनों देशों के रिश्तों के इस विरोधाभास को और स्पष्ट करते हुए प्रोफ़ेसर स्वर्ण सिंह कहते हैं, ”बड़ी ताक़तों के रिश्ते हमेशा से बहुरंगी होते हैं यानी उनके आपसी रिश्तों के कई रंग होते हैं. अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग तरह के तालमेल होते हैं. कहीं तनाव बना रहता है तो कहीं झगड़े भी होते हैं.”
वे आगे कहते हैं, ”इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि भारत का चीन से एक ओर सीमा को लेकर तनाव है. वहीं दूसरी ओर दोनों के बीच कारोबार और निवेश लगातार बढ़ रहे हैं.”
इस प्रकार के सबंधों को समझने के लिए उन्होंने ब्रिटेन और फ़्रांस या ब्रिटेन और जर्मनी या ब्रिटेन और रूस या अमेरिका और चीन के संबंधों को देखने की बात भी कही.
भारत की घरेलू राजनीति में चीन का मुद्दा
बीते कुछ महीनों से चीन को लेकर विपक्ष मोदी सरकार पर लगातार हमले करती रही है. चुनावों में भी सीमा विवाद के मसले को उठाया गया है. तो देश की अंदरूनी राजनीति में चीन इतना अहम क्यों होता जा रहा है?
इस पर प्रोफ़ेसर स्वर्ण सिंह कहते हैं कि विदेश नीति से जुड़े सवाल घरेलू राजनीति में पहले भी उठते रहे हैं.
वे कहते हैं, ”क़रीब 20 सालों से भारत की घरेलू राजनीति में, ख़ासकर चुनावों के वक़्त, विदेश नीति के मुद्दे सामने आए हैं. भारत और अमेरिका के बीच जब परमाणु क़रार पर बातचीत हो रही थी, उस वक़्त भी उससे जुड़ी बातें ख़ूब उछली थीं.”
उन्होंने कहा कि चीन के साथ सीमा विवाद के चलते गलवान की हिंसा के बाद पूरा देश इस मसले को लेकर बहुत जागरूक हो गया है.
प्रोफ़ेसर सिंह कहते हैं, ”ऐसे माहौल में यदि यह तनाव दो साल तक बना रहा है तो इस दौरान यहां की राजनीति और चुनाव में चीन का ज़िक्र तो होगा ही.”
और क्या कहा था एस जयशंकर ने?
भारत के विदेश मंत्री ने म्यूनिख सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस में यह भी कहा कि दोनों देशों के रिश्तों की दशा वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी एलएसी की स्थिति से तय होगी.
उन्होंने एक सवाल के जवाब में कहा, “हम चीन के साथ दिक़्क़त का सामना कर रहे हैं. दिक़्क़त ये है कि 45 साल से वहां शांति थी. सीमा प्रबंधन को लेकर स्थिरता थी. 1975 से बॉर्डर पर कोई हताहत नहीं हुआ था. लेकिन ये स्थिति अब बदल गई है.”
विदेश मंत्री ने कहा, ”हमारे चीन के साथ समझौते हुए थे कि जिसे हम सीमा कहते हैं, असल में वो वास्तविक नियंत्रण रेखा है. वहां सैन्य बल तैनात नहीं होंगे, लेकिन चीन ने उन समझौतों का उल्लंघन किया.”
एस जयशंकर के अनुसार, ”इसके बाद दोनों देशों के प्रतिनिधियों के बीच कई दौर की बातचीत हुई. दोनों देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में सहमति बनने के बाद फ़रवरी 2021 में डिसइंगेजमेंट की प्रक्रिया शुरू हुई. अभी तक दोनों देशों के बीच 14 दौर की सैन्य वार्ता हो चुकी है, पर कोई बड़ा नतीज़ा सामने नहीं आया है.”
इससे पहले, इसी महीने भारतीय विदेश मंत्री ने ऑस्ट्रेलिया में कहा था कि उन्होंने क्वॉड देशों के नेताओं से भारत और चीन के सीमा विवाद पर चर्चा की. क्वॉड में भारत और ऑस्ट्रेलिया के अलावा अमेरिका और जापान भी हैं.